इस आत्मग्लानि से स्रष्टा ब्रहमा संध्या की लाली में परिवर्तित हो जाता है।
3.
संध्या की लाली में वह उस परम सौंदर्य सत्ता की मुस्कान का अनुभव करता है-
4.
ऊषा और संध्या की लाली के बहाने मुस्कुराता हुआ (सपनप्रिया, पृ.-31) ।
5.
सुबह के अबोध धूप से रोशन होता हैं जहाँ ; संध्या की लाली से डख कर हो जाता हैं दुआं।
6.
संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ; छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।
7.
संध्या की लाली में वह उस परम सौंदर्य सत्ता की मुस्कान का अनुभव करता है-हुआ था जब संध्यालोक, हंस रहे थे तुम पश्चिम ओर।
8.
संध्या की लाली में वह उस परम सौंदर्य सत्ता की मुस्कान का अनुभव करता है-हुआ था जब संध्यालोक, हंस रहे थे तुम पश्चिम ओर।
9.
नदिया-स्नेह बूँद सिकता बनती (१३) यह जग केवल स्वप्न असार (१४) सिमट रही संध्या की लाली (१५) साँझ का सूरज (१६) तिमिरांचला (१७) दूतिका (१८) समर्पिता (१९) निरूपमा (२०) अंकिता
10.
तुम कौन! हृदय की परवशता? सारी स्वतंत्रता छीन रही, स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन-वन से हो बीन रही! ” संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती-सी, छाया प्रतिमा गुनगुना उठी, श्रद्धा का उत्तर देती-सी।